Monday, September 23, 2013

आंदोलनों का बदलता स्वरूप

भारत में आंदोलन का एक लम्बा अरसा आजादी के पूर्व से लेकर बाद तक का रहा है। अगर आजादी के पूर्व के आंदोलनों की पृष्ठभूमि पर नजर डाले तो एक बात साफतौर पर निकलकर सामने आयेगी कि उस दौरान जो भी आंदोलन हुए वह सिर्फ और सिर्फ देश की स्वतंत्रता के लिए ही होते रहे हैं, चाहे उन आंदोलनों का जैसा भी स्वरूप रहा हो।
aandolan  हालांकि कई आंदोलन ऐसे भी रहे हैं जिनका विरोध भी होता रहा है..इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा है कि देश में उस समय दो दल होते थे एक नरम दल तो दूसरा गरम दल…और दोनों ही दलों द्वारा क्रांति की बिगुल बजाने का अपना अलग—अलग तरीका था। हालांकि तरीके चाहे जो भी रहे हो लेकिन उद्देश्य हमेशा एक होने के कारण दोनों ही दल एकदूसरे का सम्मान जरूर करता था लेकिन वर्तमान में बीते वर्ष हुए जनआंदोलनों की अगर चर्चा करें तो यह उन आंदोलनों का न तो स्वरूप ही तय हो सका और न ही यह आंदोलन सफल हो सकें। अगर इस के मूल कारण पर जाये तो कहीं न कहीं एक बात निकल के आती है कि इन आंदोलनों के नेतृत्व की क्षमता में बहुत कमियां रही। हालांकि यह आंदोलन ऐसे रहे जिन्हें उन्होंने भी समर्थन दिया जिनके विरूद्ध कभी देशवासियों को आंदोलन करना पड़ा था, बावजूद इसके निष्कर्ष शून्य हुआ इसके मूल कारण पर न ​तो किसी ने चर्चा की और न ही इसकी समीक्षा हुई। हाल ही प्रदर्शित एक फिल्म सत्याग्रह में निर्देशक प्रकाश झा ने यह साफतौर पर दिखाया लोगों को कि आंदोलन में अगर नेतृत्व की क्षमता का अभाव होता है तो उसका हाल क्या होता है। अब अगर उन आंदोलन कर्ताओं की चर्चा करें तो एक दुखद विषय निकल कर सामने यह आता है कि कहीं न कहीं सत्ता के गलियारों में अपनी उपस्थिति को दर्ज कराना ही उनका मूल उद्देश्य रहा जो सार्थक हो गया। गांधी की बात करने वाले लोग सिर्फ उनके विचारों की चर्चा कर खुद को चर्चाओं में लाने तक सीमित होकर रह गये और दूसरी ओर कुछ तो पूर्ण रूप से राजनिती गलियारों में राष्ट्रीय स्तर के क्षवि के गुणगान करने और उनकी आड़ में अपनी रोटी सेंकने में लगे हुए है। तो स्पष्ट रूप से यह कहना कि यह आंदोलन सिर्फ व्यक्तिगत लाभ सिद्धी के लिए किया गया था, गलत न होगा। देश को आज एक नेतृत्व की तलाश है लेकिन जरा सोचिए जब व्यक्तिगत लाभ स़िद्धी करने के उद्देश्य से आंदोलन करने वाले ऐसे लोग राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करेंगे तो देश ​कहां जायेगा। एक आंदोलन वह था जिसकी पूर्ति के लिए युवा हसते हुए फांसी के फंदे तक को चुम लेता था और एक आंदोलन वर्तमान दौर में हो रहे है जिसमें देश की चिन्ता करना तो दूर व्यक्ति लाभ की पूर्ति होना सुनिश्चित करना है। वर्तमान समय में हुए आंदोलनों का अगर वास्तविक रूप देखना हो तो मिस्त्र के आंदोलन से सीख लेना चाहिए कि वहां कि जनता ने यह साबित करके दिखा दिया कि वास्तव में जनता, जनप्रतिनिधों व सत्ताधारियों से श्रेष्ठ है। जनता ही सत्ता पर बैठाती है और जब वही जनता विरोध करने पर आती है तो वर्षों से सत्ता के मद में चूर शासक को जमींन तक नसीब नहीं होती लेकिन यह परिवर्तन हिन्दुस्तान की जनता कब करेगी या अभी और कितना समय लगेगा इस प्रकार के जनआंदोलन में यह तो जनता जनार्दन और राष्ट्र के बुद्धजीवी ही बता सकने में सामर्थ्यवान होंगे। अब तो बस इंतजार है, हुए इन आंदोलनों के बदले हुए स्वरूप का।

Saturday, April 21, 2012

बदलते स्वरूप में सिनेमा व उसकी पत्रकारिता


 सामाजिक घटनाक्रमों के यथार्थ स्वरूप को चलचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने की विधा सिनेमा है। समय के साथ-साथ इसके स्वरूप में भी परिवर्तन होते रहे हैं। कल तक जो सिनेमा पारिवारिक विघटन, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, विपन्नता, जातिवाद, सामंतवाद एवं राजनीति की सड़ी-गली व्यवस्था को चलचित्रों के माध्यम से पर्दे पर प्रदर्शित करता था, वही सिनेमा आज वैश्वीकरण से प्रभावित होकर नग्नता, फूहड़ता आदि को पर्दे पर दिखा रहा है। सिनेमा में आए इस परिवर्तन को भारतीय मीडिया ने भी आत्मसात कर लिया है। कल तक सिनेमा की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार सिनेमा के उन पहलुओं को उभारता था, जिससे वास्तव में पाठक या दर्शक अनभिज्ञ थे, किन्तु वर्तमान में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव ने पत्रकारिता के उस भाव को बाजार में बेच दिया है। इसका प्रभाव फिल्मों के प्रदर्शित होने से पूर्व मीडिया द्वारा उस पर होने वाली चर्चाओं और उसे दिये गये रेटिंग प्वांइट्स में साफतौर पर नजर आता है।


सिने जगत आज हर युवा वर्ग की पसन्द है। इसलिए सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि फिल्मी हस्तियां और उनसे जुड़ी खबरों को भी लोग वर्तमान दौर में काफी रूचि से पढ़ते हैं। इसके पीछे एक कारण और भी प्रतीत होता है कि भाग-दौड़ की जिन्दगी में जहां हर व्यक्ति तनावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है, वहां उसे कुछ ऐसे साधन की चाह होती है जो उसे इन सब से थोड़ा दूर ले जा सके। आम आदमी को क्षणिक सुख प्रदान करने के लिए मीडिया द्वारा निभायी गई यह भूमिका सराहनीय कही जा सकती है, परंतु आज उसका स्तर जितना गिर गया है, वह सुख प्रदान करने से हट कर मनुष्य की वासनालोलुपता का व्यवसाय करने तक पहुंच गया है।

बात अगर फिल्मों की रिपोर्टिंग की करें तो जितना पुराना भारतीय फिल्म का इतिहास है उतना ही पुराना इतिहास फिल्मों की रिपोर्टिंग का भी है। 1932 में जब पहली सवाक फिल्म आलमआराको पर्दे पर प्रदर्शित किया गया तो उस समय पर्दे पर बोलते व चलते लोगों को देखने के लिए काफी भीड़ जुट जाती थी। धीरे-धीरे लोगों के बीच फिल्मों को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। कोई कहता कि यह सब चित्र नहीं जादू है, तो किसी के विचार से यह सब पर्दे के पीछे बैठा जादूगर करता है। फिल्मों से जुड़े ऐसे कई सवालों के प्रश्न लोग स्वयं ही उठाते और स्वयं ही इन प्रश्नों का हल निकाल लेते थे, किन्तु कोई भी व्यक्ति पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो पाता था। इन सभी उठते प्रश्नों के महाजाल और फिल्मों के प्रति समाज में व्याप्त हो रही भ्रामक जानकारियों को देखते हुए श्री लेखराम के दिमाग में आया कि यदि लोगों के मस्तिष्क में उठ रहे सवालों का जवाब उन्हें पत्रिका के माध्यम से दिया जाये तो यह पत्रिका काफी लोकप्रिय होगी। इस विचार से उन्होंने सन 1932 में रंगभूमिनाम से एक साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। पत्रिका बाजार में आते ही लोगों ने उसे हाथों-हाथ ले लिया। चार सालों तक बाजार में अन्य कोई भी फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन न होने के कारण रंगभूमिने अपना एक अच्छा-खासा पाठक वर्ग तैयार कर लिया, लेकिन बाजार में जब किसी वस्तु की मांग बढ़ने लगती है तो यह बाजार की नियति है कि वहां प्रतिस्पर्धी खड़े होने शुरू हो जाते हैं। रंगभूमिकी बढ़ती लोकप्रियता को देख 1936 में ऋषभ चरण जैन ने चित्रपटनामक फिल्मी पत्रिका प्रकाशित की। बाजार में प्रतिस्पर्धा की दौड़ आरम्भ हो गई। फिल्मी खबर पढ़ने वाले पाठकों को दोनों ही पत्रिकाओं का बेसब्री से इंतजार रहता था। यह पत्रिकाएं फिल्मों के साथ ही साथ तात्कालिक समाज में चल रहे घटनाक्रमों को भी अपने पाठकों के समक्ष इस प्रकार से परोसती थी कि पाठक वर्ग को इससे ऊबाऊपन महसूस न हो।

1947 में देश आजाद हुआ, जिसका प्रभाव आम जनमानस के साथ-साथ फिल्मों पर भी पड़ा। आजादी के पूर्व फिल्म निर्माण का एक बड़ा केन्द्र लाहौर था, इस कारण बंटवारे के समय सिने जगत से जुड़े कलाकार, निर्माता, निर्देशक व अन्य सभी इधर-उधर हो गए। इस कारण एक ओर जहां यह दोनों पत्रिकाएं प्रभावित र्हुइं, वहीं दूसरी ओर सिने जगत की पत्रकारिता करने वाले लोग भी बिखर गये। हालांकि दोनों ही पत्रिकाओं का अंक निकलता तो रहा लेकिन इनमें अब वो पहले जैसी बात नहीं रह गई और धीरे-धीरे इन दोनों पत्रिकाओं का सूर्य अस्त हो गया। 1947 में चित्रपटके संपादक रहे श्री संतपाल पुरोहित ने उससे अलग हो अपनी स्वयं की फिल्मी पत्रिका युगछायानिकाली। यह भी आर्थिक अभाव के कारण लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो सकी। इसके बंद होने के बाद दिल्ली से प्रकाशक बृजमोहन ने फिल्मी चित्रनाम की एक पत्रिका निकाली, लेकिन फिल्मी कहानियों के साथ-साथ इसमें राजनीतिक खबरें होने के कारण यह पाठक वर्ग द्वारा नापसंद की जाने लगी और इसका भी प्रकाशन जल्द ही बंद हो गया। इसका एक सीधा तात्पर्य यह भी है कि तात्कालिक समय का पाठक वर्ग भी फिल्मों की पत्रिका में सिर्फ फिल्मों की ही खबर चाहता था न कि अन्य खबर। इसके बाद फिल्मों से जुड़े विषय पर कई और पत्रिकाएं जैसे बच्चन श्रीवास्तव की कल्पना’, ख्वाजा अहमद अब्बास की सरगम’, ए. पी. बजाज की मायापुरीआदि प्रकाशित हुई। इनमें से कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन अभी भी जारी है, जैसे मायापुरी60 के दशक में आने वाली पत्रिकाओं में पाठक द्वारा रूचि लेने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह भी था कि उस समय की पत्रिकाओं में सामग्री अच्छी होने के साथ-साथ वे घर में परिवार के सदस्यों के बीच पढ़ने योग्य होती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय के साथ समाज में परिवर्तन होता गया, वैसे-वैसे इन पत्रिकाओं के कलेवर और सामग्री में भी परिवर्तन होता गया। परिवर्तन सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि पाठकों की सोच में भी अन्तर आया। तब से अब तक का सफर तय करने वाली मायापुरीमें काफी परिवर्तन हुए। प्रतिस्पर्धा की दौड़ कहें या बाजार का प्रभाव, वर्तमान में मायापुरीके भी मुखपृष्ठ पर अर्द्धनग्न हीरोइनों के चित्र छापे जाने लगे हैं।

पत्रिकाओं के बाद फिल्मी खबरों का दौर अखबारों में भी धीरे-धीरे शुरू होने लगा। 70 के दशक में जब अमिताभ बच्चन के यंग एंग्रीमैन का फ्लू पूरे देश में फैला, तब फिल्मों की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। सिने जगत के खास समाचारों को अखबारों के मुखपृष्ठ पर प्रमुखता के साथ छापा जाने लगा। तात्कालिक समय में अखबारों के पृष्ठ-संख्या कम होने के बावजूद भी सिने जगत की खबरों को छापा जाता था। धीरे-धीरे यह प्रक्रिया बढ़ती रही और एक ऐसा वक्त भी आ गया जब समाचार पत्र के साथ हर सप्ताह फिल्मों पर चार रंगीन पृष्ठ फिल्मी खबरों के लिये निकाले जाने लगे। फिल्मी खबरों के लिए समाचार पत्रों में स्थान धीरे-धीरे कुछ इस प्रकार से बढ़ा कि दैनिक भास्कर ने 1997 से नवरंगनाम से चार रंगीन पृष्ठ सिने जगत से जुड़ी खबरों के लिए छापने शुरू कर दिये। इसके अतिरिक्त दैनिक जागरण ने तरंग’, लोकमत ने आकर्षण’, नई दुनिया ने रविवारीय’, राजस्थान पत्रिका ने बॉलीवुड’, दैनिक ट्रिब्यून ने मनोरंजन’, नाम से फिल्म परिशिष्ट निकाले। आज स्थिति यह हो गई है कि ऐश्वर्य राय बच्चन को बच्चा हो रहा है, तो भी खबर उनके फोटों के साथ मुखपृष्ठ पर छपती है।

1960 से 1970 के बीच जब बंगाल में नक्सलवाद की तेज आंधी चल रही थी, ऐसे में भी सत्यजीत रे जैसे लोग सृजनात्मक वयस्कता की ओर बढ़ रहे थे। उनमें नई समझ और सामाजिक विकलता भी बढ़ रही थी और इसका पूरा प्रयोग तात्कालिक समय में आयी उनकी फिल्मों में दिखाई देता है। उस समय प्रदर्शित होने वाली फिल्में
सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, उन्हें सुलझाने का प्रयास करते हुए आपसी सम्बन्ध को मजबूत करने के लिए प्रेरित करती थी। किन्तु इसके विपरीत पिछले एक दशक में आने वाली अधिकतर फिल्में केवल फूहड़पन, अश्लीलता व नग्न प्रदर्शन परोसने के बावजूद और अच्छी पटकथा न होने पर भी सिर्फ संचार माध्यमों के द्वारा जोर-शोर से प्रचार-प्रसार कर प्रदर्शित की जा रही है। पूर्व में सिने जगत की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार फिल्मों की पटकथा का जो चित्रण अपनी लेखनी के माध्यम से करता था, वही चित्रण लोगों को फिल्मों में भी दिखाई देता था। किन्तु आज का मीडिया इसके ठीक विपरीत हवाओं में बह रहा है। आज मीडिया द्वारा जिस फिल्म को अच्छी रेटिंग प्वाइंट के साथ दर्शकों व पाठकों के बीच लाया जाता है, वास्तविकता उसके विपरीत होती है। कहीं-कहीं तो अलग-अलग मीडिया प्रकाशनों द्वारा दिये जाने वाले इस रेटिंग प्वाइंट में भी इतनी विभिन्नता होती है कि पाठक व दर्शक यह स्वयं तय नहीं कर पाते की वास्तव में उस फिल्म को देखना चाहिए अथवा नहीं।

मीडिया को समाज का आईना कहते हैं, इसलिए वह जो कुछ दिखाता है आम जन उसी आधार पर अपनी सोच को बनाता है। उदाहरणस्वरूप, अभी हाल ही में प्रदर्शित चर्चित अभिनेता शाहरूख की फिल्म रा.वनको मीडिया द्वारा मिलने वाले रेटिंग प्वाइंट की बात करें तो दैनिक जागरण ने इसे जहां 5 प्वांइट में से 4 प्वाइंट दिये वहीं हिन्दुस्तान टाइम्स ने 2 प्वाइंट, टाइम्स ऑफ़  इंडिया ने 3.5, इंडिया टुडे पत्रिका ने 3.5, दैनिक हिन्दी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने 2 प्वाइंट, इकनॉमिक टाइम्स समाचार पत्र ने 3.5, दैनिक भास्कर ने 3 प्वाइंट, न्यूज चैनल आईबीएन लाइव ने 2.5, जी न्यूज ने 2 प्वाइंट, दैनिक हिन्दी समाचार पत्र डीएनए ने 3 प्वाइंट दिये हैं। इस प्रकार से यहां यह स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है कि दिये गये रेटिंग प्वाइटों में काफी अन्तर है। अब अगर बात इस फिल्म को लेकर जनता के विचारों की करें तो दर्शकों द्वारा इसे सिरे से नकार दिया गया। दर्शकों ने इसे टाइमपासऔर बकवासजैसे शब्दों से सम्बोधित किया, बावजूद इसके कि कई न्यूज चैनलों व समाचार पत्रों ने इसे अच्छे रेटिंग प्वाइंट्स दिये। मीडिया द्वारा दिया जाना वाला यह रेटिंग प्वाइंट किस आधार पर निर्धारित होता है, यह तो इन मीडिया संस्थानों के मालिक ही बता सकते हैं।
वर्तमान समय में बाजार से प्रभावित मीडिया संस्थानों की स्थिति कुछ ऐसी है कि प्रतिस्पर्धा में शीर्ष पर पहुंचने की ललक ने इन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है। पैसे दे कर अपनी बात कहलवाना आज यहां बहुत आसान हो गया है। इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वास्तव में तथ्य व सत्य क्या है? और इसके प्रकाशित हो जाने के पश्चात इसके क्या परिणाम होंगे? ऐसी स्थिति में चैथे स्तम्भ पर से भी आमजन का विश्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में इन फिल्मों का समाज पर जो प्रभाव पड़ रहा है, वह सही नहीं है। अतः इस व्यवस्था में सुधार की बहुत आवश्यकता है।

Sunday, April 8, 2012

1857 गदर के नायक मंगल पांडे


जिस पुण्य भूमि पर भगवान विष्णु को कर्तव्य का अहसास कराने वाले महर्षि भृगु पैदा हुए, बलिया के उसी धरती पर 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी व भारत मां के वीर सपूत मंगल पांडे का 19 जुलाई 1827 को तत्कालीन गाजीपुर जनपद के बलिया तहसील के अंतर्गत नगवां गांव के टोला बंधुचक में जन्म हुआ। इनके पिता का नाम सुदिष्ट पांडे व माता का जानकी देवी था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा। वे तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के 19वीं नेटिव इंफेंटरी रेजीमेंट के सिपाही थे। पश्चिम बंगाल के बैरकपुर में विद्रोह शुरू करने का श्रेय मंगल पाण्डेय को ही है। अंगेजों द्वारा कारतूसों में जानवरों की चर्बी का प्रयोग करने वाली बात ने मंगल पांडे की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। इस राइफल के कारतूस के बारे में कहा गया था कि इसमें गाय व सुअर की चर्बी लगी है और अंग्रेज ऐसा हिन्दू-मुसलमानों का धर्म नष्ट करने के मकसद से कर रहे हैं।
29 मार्च 1857 को मंगल पांडे ने परेड ग्राउंड में ही अपने साथियों को इसके विरोध के लिए विद्रोह करने हेतु ललकारा। अंग्रेज सार्जेंट मेजर ह्यूसन ने जब सैनिकों को मंगल को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया, तो कोई सैनिक आगे नहीं बढ़ा। मंगल ने ह्यूसन को गोली मारकर वहीं ढेर कर दिया। इसके बाद सामने आए लेफ्टिनेंट बॉब को भी मंगल ने गोली से उड़ा दिया। इस दौरान जब मंगल अपनी बंदूक में कारतूस भर रहे थे, तो एक अंग्रेज अफसर ने उन पर गोली चलाई। निशाना चूकने पर मंगल ने उसे भी तलवार से मौत के घाट उतार दिया, लेकिन वह पकड़ लिए गए। उनकी गिरफ्तारी की खबर देशभर की सैनिक छावनियों में जंगल में आग की तरह फैल गई और विप्लवी भारतीय सैनिकों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया।
मंगल पांडे द्वारा लगाई गई चिनगारी को ज्वालामुखी बनते देख अंग्रेजों को लगा कि यदि फांसी में देरी की गई तो बगावत उनके शासन को तबाह कर सकती है। इसलिए तय वक्त से 10 दिन पूर्व ही 8 अप्रैल 1857 को ही इस वीर पुरुष को फांसी दे दी गई। स्वतंत्रता के लिए लड़े गए इस युद्ध को शुरू में 1857 का गदर नाम मिला लेकिन बाद में इसे पहली जंग ए आजादी के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई। मंगल पांडे के प्रयास का नतीजा 90 साल बाद 1947 में भारत की आजादी के रूप में निकला और अंग्रेज अपना सब कुछ समेटकर भारत से चले गए।