Saturday, February 5, 2011

करमापा लामा की अग्नि परीक्षा

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भारत को अस्थिर करने के लिए चीन कभी भी कैसे भी कदम उठाने से नहीं चूकता है उसी कदम में ताज़ा प्रकरण करमापा लामा के रूप में देखा जा सकता है ? तिब्बती समाज में चीनी घुसपैठ को समय रहते रोकना जितना भारत की सुरक्षा के लिए जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा यह निर्वासन में रहने वाले तिब्बती समाज की राष्ट्रीय उम्मीदों और उनके अभियान को जिंदा रखने के लिए जरूरी है। इस मामले को किसी एक वरिष्ठ धर्मगुरु के खिलाफ दुराग्रहपूर्ण कार्रवाई न मानकर इसे करमापा के लिए अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने का एक अवसर माना जाना चाहिए। इस अग्नि परीक्षा से यदि करमापा बेदाग बाहर आते हैं तो वह तिब्बती समाज के लिए यकीनन एक वरदान साबित होंगे। हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और दूसरे कई राज्यों की सरकारें काफी समय से तिब्बती परिवारों द्वारा बेनामी जमीनें खरीदने और उन पर घर बनाने की समस्या से रूबरू हो रही हैं। धर्मशाला में तिब्बती धर्मगुरु करमापा के निवास पर करीब 12 करोड़ रुपये नकद पाए जाने की घटना ने आजादी के संग्राम में जुटे तिब्बती शरणार्थी समाज के लिए एक अजीबोगरीब धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। कुछ साल पहले यही करमापा तिब्बत में चीनी चंगुल से भागकर भारत आने के साहसिक कारनामे के कारण दुनिया भर में चर्चा का केंद्र बने थे, लेकिन इस बार बिना खाते वाली बड़ी धनराशि और उनके मठ द्वारा खरीदी गई संपत्तियों के आरोपों से यह संदेह भी उछाला जा रहा है कि कहीं करमापा की चीन सरकार के साथ कोई साठगांठ तो नहीं है? 2000 के शुरू में अचानक चीनी नियंत्रण से भागकर भारत आने पर कुछ लोगों ने यह आशंका जताई थी कि वह चीनी योजना के तहत भागकर आए हैं ताकि वह चीनी इरादों को अंजाम दे सकें। करमापा की चीन के साथ साठगांठ का आरोप कितना सही है या कितना गलत, इस नाजुक सवाल पर जल्दबाजी में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाए जांच एजेंसियों की जांच पूरा होने का इंतजार करना शायद एक बेहतर विकल्प होगा, लेकिन पैसे से जुड़े कई गंभीर सवाल हैं, जिन पर तिब्बत की निर्वासन सरकार, उसके नेताओं, तिब्बती समाज, भारत सरकार और तिब्बत से सहानुभूति रखने वालों को गंभीरता से विचार करना होगा।   तिब्बती शरणार्थियों की मानें तो करमापा उस राजनीति के शिकार हुए हैं, जो सिक्किम और हिमाचल में रह रहे करमापाओं के गुरुओं के बीच प्रतिद्वंद्विता से उपजी है। करमापा का संप्रदाय सबसे बड़े तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के संप्रदाय से भी पुराना है। करमापा मठ में मिली राशि किसकी है, किसकी नहीं, यह भले ही जांच का विषय है, लेकिन तिब्बती समाज मानता है कि इस घटनाक्रम को दो करमापाओं की प्रतिद्वंद्विता से जोड़कर देखा जाना चाहिए।
ऑस्टि्रया के वियना विश्वविद्यालय, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, रूस, मंगोलिया सहित कई देशों में बौद्ध धर्म पर शोध पत्र पढ़कर लौटे 76 वर्षीय वयोवृद्ध साहित्यकार छेरिंग दोरजी के मुताबिक उग्येन त्रिनले दोरजे को 17वें करमापा के रूप में मान्यता ताई सीतू रिंपोछे के इस दावे के बाद मिली कि उनके पास 16वें करमापा का वसीयतनुमा पत्र है। वह उग्येन त्रिनले दोरजी को उनके बचपन में चीन भी घुमा लाए थे, जब उग्येन थुरफू (तिब्बत) में रहते थे। ताई सीतू के कुछ भारतीय अफसरों से भी गहरे संबंध बताए जाते हैं। करमापा के अवतारवाद को लेकर शमर और ताई सीतू रिंपोछे का आपसी द्वंद्व कई वर्षो से जारी है। ताई सीतू रिपोंछे करमापा के गुरु और बेहद चुस्त भी माने जाते हैं। उन्हें एक बार भारत से निकलने के आदेश दिए गए थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद उन्हें भारत में रहने दिया गया। उनका केस जानेमाने वकील राम जेठमलानी ने लड़ा था। ताई सीतू का संबध चीन से भी गहरा बताया जाता है।
उधर, सिक्किम वाले करमापा के गुरु शमर का संबंध भूटान के राज परिवार से है। लाहौल-स्पीति में दलाईलामा से अधिक करमापा के अनुयायी हैं। बौद्ध धर्म का इतिहास बताता है कि करमापा 12वीं शताब्दी वाले काग्यू संप्रदाय से ताल्लुक रखते हैं, जबकि दलाईलामा 15वीं शताब्दी के जिलुपा संप्रदाय से हैं। बकौल दोरजे, करमापा भारतीय चौरासी सिद्धों में सरापा से अस्सी प्रतिशत मिलते हैं। छेरिंग दोरजी मानते हैं कि लाहुल स्पीति में करमापा उग्येन त्रिनेल दोरजी के अनुयायी दलाईलामा से ज्यादा हैं। उनके लिए करमापा आज भी सम्मान के योग्य हैं। बकौल छेरिंग दोरजे करमापा बनाने के लिए शंबर और ताई सीतू रिपोंछे की आपस में खींचतान का भी हालिया घटनाक्रम से संबंध हो सकता है। छेरिंग दोरजी इस बात को भी नहीं नकार रहे कि इसके पीछे शमर का भी हाथ हो सकता है, क्योंकि जंग वर्चस्व की है। हिमाचल में करमापा अवतार को मानने वाले अधिक हैं। किन्नौर में कनम गांव के पास इनका करीब 300 साल पुराना मठ है। दोरजे कहते हैं कि करमापा के अनुयायी सबसे अधिक ताईवान में हैं और अनुयायी की आड़ में कई चीनी भी यहां की खबरें लेने आते हैं। हालिया घटनाक्रम से अनुयायियों को ठेस अवश्य ही पहुंची है, लेकिन करमापा के प्रति सम्मान बरकरार है। दोरजी बौद्ध धर्म से भी पुराने बोन धर्म के इतिहास पर पुस्तक लिख चुके हैं। छेरिंग दोरजी का कहना है कि पहले करमापा कारमा पक्षी के देहावसान के बाद ही करमापा अवतार की परंपरा शुरू हुई। उससे पहले मठों पर लोगों का गद्दीनशीन किया जाता था।
अब तक की जांच में करमापा और उनके सहयोगियों की दलील है कि यह धन उन्हें देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं के चढ़ावे का है, जो पिछले कई सालों से मठ में नकद रखा जाता रहा है। हालांकि पत्रकारों के सवालों के जवाब में दलाई लामा ने करमापा पर चीनी एजेंट होने के आरोप से अपनी असहमति जताई है, लेकिन उन्होंने पैसे के मामले में लापरवाही बरतने और कानून का पालन न करने के लिए करमापा और उनके सहयोगियों की आलोचना की है। लेकिन यह तय है कि करमापा से जुड़े इस कांड ने न सिर्फ तिब्बत के एक बड़े धार्मिक नेता और वहां के धार्मिक संगठनों की साख पर बट्टा लगाया है, बल्कि शरणार्थी समाज द्वारा मुश्किलों के बीच पचास साल से खड़े किए जा रहे आजादी के आंदोलन को भी कमजोर किया है। इस कांड से उठे सवालों की बारीकियों को समझने के लिए तिब्बत की धर्म व्यवस्था, निर्वासित तिब्बती समाज की स्थिति और चीन की भूमिका जैसे कुछ पहलुओं पर एक नजर डालना जरूरी होगा। तिब्बती बौद्ध परंपरा के अनुसार एक धर्मगुरु या मठाधीश के मरने पर उसके अवतार को उसके पद पर बिठाया जाता है। मठों की विशाल संपत्ति और उनके राजनीतिक प्रभाव के कारण मठ के प्रभावशाली अधिकारियों के बीच नया अवतार ढूंढ़ने के सवाल पर कई बार जोरदार उठापटक और हिंसा होने की घटनाएं भी होती रही हैं। तिब्बती इतिहास में ऐसे कई मौके आए, जब तिब्बती राजाओं ने चीन के कई हिस्सों पर शासन किया और कई बार चीनी शासकों का तिब्बत में दबदबा रहा। इसलिए मौका पड़ने पर कई बार चीनी शासकों ने भी नए धर्मगुरु के अवतार की खोज को अपने हितों के लिए प्रभावित किया। अब तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद वहां की धार्मिक संस्थाओं पर कब्जा जमाने की चीनी इच्छा और बलवती हो चुकी है। 1990 के दशक में बीजिंग की कम्युनिस्ट सरकार अपने धर्म विरोधी विश्वासों के बावजूद पंचेन लामा और करमापा जैसे वरिष्ठ धर्मनेताओं के नए अवतारों की खोज के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों के नेतृत्व में अवतार खोजी कमेटी का गठन करके अपनी मर्जी के वरिष्ठ धर्मगुरुओं के नए अवतार खोजने का काम कर चुकी है। अगले दलाई लामा के अवतार को अपनी मर्जी से नियुक्त करने के अपने इरादों को भी वह दबंग तरीके से घोषित कर रही है। इस काम में उसे तिब्बती धर्मगुरुओं के समर्थन की बहुत जरूरत होगी। यही कारण है कि उचित दिन की तैयारी में वह इन दिनों तिब्बत के भीतर और बाहर छोटे-बड़े तिब्बती लामाओं को अपने प्रभाव में लाने के अभियान में जुटी हुई है। इसलिए भारत में चल रहे तिब्बती मठों के निर्माण पर किए जा रहे अंधाधुंध खर्च और तिब्बती शरणार्थियों द्वारा जमीनें खरीदने को लेकर अगर भारतीय सुरक्षा एजेंसियां चिंतित हैं तो यह चिंता स्वाभाविक है। 1959-60 में दलाई लामा और उनके साथ आए तिब्बतियों को भारत सरकार और कई राज्य सरकारों ने जमीन व सहयोग देकर उनके पुनर्वास में प्रशंसनीय पहल की थी, जो शरणार्थियों की तत्कालीन आर्थिक हालत के अनुकूल थी, लेकिन इस बीच शरणार्थियों की दो-तीन नई पीढि़यां पैदा हो चुकी हैं। आधुनिक शिक्षा और रोजगार की नई सुविधाओं से सुधरी उनकी आर्थिक हालत ने उनकी आवास और दूसरी जरूरतों को एक नया आयाम दे दिया है, लेकिन भारतीय कानून इन शरणार्थियों के विदेशी नागरिक दर्जे की वजह से उन्हें भारत में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं देता। लिहाजा आम तिब्बती परिवारों द्वारा बेनामी जमीनें खरीदने और उन पर घर बनाने की समस्या से हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और दूसरे कई राज्यों की सरकारें काफी समय से दो-चार हो रही हैं। ऐसे हर सौदे में भारतीय दलालों की मदद से नकद भुगतान ने गैरकानूनी लेनदेन को और आगे बढ़ाने में मदद की है। पिछले पचास साल में तिब्बती मठों की लोकप्रियता पश्चिमी देशों के अलावा ताईवान, जापान, सिंगापुर, हांगकांग और कोरिया जैसे बौद्ध देशों, यहां तक कि चीन में भी बहुत बढ़ चुकी है। इसलिए धर्मशाला और बोधगया जैसे धार्मिक स्थानों पर होने वाले पूजा समारोहों में इन देशों से एक साथ हजारों श्रद्धालुओं का आना और अपनी-अपनी मुद्रा में अपने गुरुओं को चढ़ावे चढ़ाना एक आम दृश्य बन चुका है। ऐसे में करमापा के निवास से 25 देशों की करेंसी में कई करोड़ रुपये नकद मिलने के बारे में उनके सहयोगियों द्वारा इस चढ़ावे की बात तो कुछ हद तक समझी जा सकती है, लेकिन स्पष्ट भारतीय कानूनों के बावजूद इतनी बड़ी मात्रा में विदेशी करेंसी को बैंक के बजाए मठ के बक्सों में रखने की गलती को अपने मेजबान देश के प्रति समुचित जिम्मेदारी और सम्मान नहीं माना जा सकता। अब कर्मापा से जुड़ी इन घटनाओं ने भारतीय सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान भी इस ओर खींच लिया है। वे अब यह सुनिश्चित करने में लगी दिखती हैं कि मठों में बड़े पैमाने पर पैसे के खेल में कहीं चीन की भूमिका तो नहीं?

8 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है. लेख में कर्मापा के सम्बन्ध में काफी जानकारी है. जांच में कुछ नए तथ्य अवश्य निकलकर आयेंगे लेकिन इस घटना ने तिब्बत के धर्मगुरु पर सवालिया निशान जरुर लगाए है और चीनी मंशा भी सामने आई है..

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  2. bahut hi badhiya post
    bahut saari nayi jaankariyan mili
    aapka aabhaar



    'सी.एम.ऑडियो क्विज़'
    हर रविवार प्रातः 10 बजे

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  3. सुन्दर लेख ... ब्लोगिस्तान में आपका स्वागत है |

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  4. भाई अमल,
    करमापा का कार्य और उसकी मंशा दोनों को जान लेना हमारे लिए अत्यंत जरूरी है भारत सरकार का इस संवेदनशील मुद्दे को नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा. लेख में अच्छी जानकारियां दी गई हैं.

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  5. लेखन अपने आप में ऐतिहासिक रचनात्मक कायर् है। आशा है कि आप इसे लगातार आगे बढाने को समपिर्त रहें। शानदार पेशकश।

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
    सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक)एवं
    राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
    0141-2222225 (सायं 7 सम 8 बजे)
    098285-02666

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  6. इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  7. हिन्दी ब्लाग जगत में आपका स्वागत है, कामना है कि आप इस क्षेत्र में सर्वोच्च बुलन्दियों तक पहुंचें । आप हिन्दी के दूसरे ब्लाग्स भी देखें और अच्छा लगने पर उन्हें फालो भी करें । आप जितने अधिक ब्लाग्स को फालो करेंगे आपके अपने ब्लाग्स पर भी फालोअर्स की संख्या बढती जा सकेगी । प्राथमिक तौर पर मैं आपको मेरे ब्लाग 'नजरिया' की लिंक नीचे दे रहा हूँ आप इसका अवलोकन करें और इसे फालो भी करें । आपको निश्चित रुप से अच्छे परिणाम मिलेंगे । धन्यवाद सहित...
    http://najariya.blogspot.com/

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